भारत की दस मुख्य समस्याएं

 

सत्ता का केंद्रीकरण

प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री एवं विधायक सत्ता के 3 महत्वपूर्ण केंद्र बन गए है। भारत में सत्ता इन तीन बिंदुओं पर संकुचित हो गई है राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री, राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री एवं विधानसभा स्तर पर पंचायती राज संस्थाएं, नगर निगम जो कि स्थानीय स्वशासन के लिए बनाई गई थी अब लगभग एक सज्जा की वस्तु बनकर रह गई है स्थानीय स्तर पर दिन प्रतिदिन के मुद्दे जो कि मोहल्ले एवं गलियों से सरोकार रखते हैं वह भी सीएम या विधायक की आज्ञा की प्रतीक्षा मे सालों तक रहते हैं। यहां तक की नगर निकाय भी जिनका हजारों करोड़ का बजट है वह भी मूलभूत सुविधाएं जैसे रोड, नाली इत्यादि के लिए मुख्यमंत्री या निकाय मंत्रालय के बिना कार्य नहीं कर पाते सीधे सीधे शब्दों में कहे तो उच्चाधिकारियों के पास स्थानीय समस्याओं के लिए समय नहीं है और स्थानीय कर्मियों के पास क्षमता नहीं है।

अधिक कल्याणकारी योजनाएं एवं कम विकास कार्य

भारत को कल्याणकारी योजनाएं एवं विकास कार्य के बीच सामंजस्य बिठाना ही होगा। शासन की मुख्य प्रतिबद्धता मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना है जैसे कि सड़क, पीने का पानी, निकासी, शिक्षा ,स्वास्थ्य एवं सुरक्षा लेकिन सरकार वोट की दौड़ में इतनी उलझ गई है की इनके अलावा बाकी मुद्दे बड़े हो गए हैं। सरकार को कर्जा बढ़ाना पड़ रहा है या फिर शासकीय संपत्तियां बेचनी पड़ रही हैं, इस राशि में एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है, वहीं दूसरा बड़ा हिस्सा लोकप्रिय योजनाएं चलाने में खर्च हो जाता है इस वजह से विकास कार्य बाधित हो रहा है।

सभी स्तरों पर संगठित भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हो गई है एवं लोगों को इसकी आदत भी हो गई है। भ्रष्टाचार केवल अर्थव्यवस्था के लिए ही खतरा नहीं है बल्कि इसने युवा पीढ़ी की मनोवृति को भी गलत प्रभावित किया है। युवा लोग भ्रष्ट राजनेताओं से प्रेरणा लेते हैं और अपने पेशे में जल्दी ऊंचाई पाने के लिए गलत रास्ते ढूंढते हैं।

मीडिया सुधार

मीडिया अनुपयोगी और गैर जरूरी खबरों को दिखाकर सनसनी फैलाता है जिससे मूल मुद्दों से लोगों का ध्यान भटके। आज सही बहस देखने को नहीं मिलती जिनसे लोगों को जानकारी बड़े और लोग वस्तुस्तथी समाज पाएं। इसमें आरोप-प्रत्यारोप पंचम सुर पर गाना अर्ध सत्य एवं अर्ध झूठ ही समाहित है।

स्वतंत्र संस्थानों का कमजोर पड़ना

संविधान ने कुछ स्वतंत्र संस्थानों को सरकार पर काबू रखने के लिए बनाया है जैसे कि चुनाव आयोग सीएजी रिजर्व बैंक इत्यादि, आज ये संस्थान राजनैतिक प्रभाव में है इस वजह से राजनेताओं की मनोवृति ऐसी हो गई है कि वह जो चाहे वह कर सकते हैं।

मूल्य हीन राजनीति

आज की राजनीति को 3 शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है, नोट, सीट और करोड़ चुनाव जीतने के लिए नोटों का उपयोग हो, जीतने के बाद करोड़ों कमाए जाएं और यह राजनीति का दुष्चक्र चलता रहता है आज के दौर में मूल्य, विचारधाराएं जैसी चीजें मजाक बन गई है, ऐसी स्थिति में किसी देश को प्रगति के सोपान पर पहुंचाना बहुत ही कठिन है

आर्थिक मॉडल बनाम सामाजिक ताना-बाना

दो दशक पहले तक लोग अपने जातिगत पेशे और यहां तक की अन्य पेशों को भी आसानी से अवसर में बदल सकते थे लेकिन अब कॉर्पोरेट संस्थाओं के हर क्षेत्र में आने से यह संभावनाएं नष्ट होती जा रही हैं स्थिति यह है कि एक डॉक्टर को कॉर्पोरेट हॉस्पिटल में, टीचर को कॉरपट स्कूल में, नाई को कॉर्पोरेट सलून में और किराने वाले को शॉपिंग मॉल में अपनी सेवाओं की आपूर्ति प्रदान करनी पड़ रही है इस तरीके से जब हर क्षेत्र में कॉर्पोरेट क्षेत्र आ रहे हैं तो 90% लोगों के पास स्वतंत्र व्यवसायिक अस्तित्व को बचाना एक कठिन चुनौती बन जाएगी।

सक्रिय बनाम प्रतिक्रियाशील सरकार

सरकार की पहली प्राथमिकता वोट बटोरने ही रह गया है इसके अलावा सरकार के स्वत: स्पूर्थ निर्णय देखने को नहीं मिलते इस वजह से नागरिकों का जीवन कठिन हो रहा है शासन से आशा की जाती है कि वह अगली पीढ़ी के लिए कार्य करें लेकिन वह अगले चुनाव में ज्यादा मगन है इस कारण मूलभूत सुविधाएं जैसे रोड नाली पर्यावरण जैसे क्षेत्र समस्या ग्रस्त हैं

केंद्रीय कृत विकास/ शहरीकरण

हमें आर्थिक विकास के लिए बड़े शहरों की आवश्यकता है इस लेकिन इस कारण हम ग्रामीण अंचल को नजरअंदाज कर रहे हैं। आज भी ग्राम एवं कस्बे मौलिक सुविधाओं से वंचित हैं इस हालत में ग्रामीण लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं इससे शहरों की व्यवस्था पर भी अधिक बोझ पड़ रहा है। यह स्थिति हमें बताती हैं कि हमें अपने संसाधनों के नष्ट होने के बारे में सोचना होगा, हमको छोटे कस्बे भी बनाने होंगे और उनमें मूलभूत सुविधाएं और औद्योगिकरण को बल देना होगा। ताकि विकास के केंद्रीकरण को रोका जा सके

नागरिकों का उत्तरदायित्व से पलायन

देश का, समाज का कुछ भी हो मुझे और मेरे परिवार के विकास पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए, यह इस समय के लोगों की मनोदशा है लोगों में निराशा का बोध बढ़ता ही जा रहा है, "इस देश का कुछ नहीं होगा" और "कोई राजनेता विश्वास पात्र नहीं है", ऐसा विचार लोगों के काफी अंदर तक उतर चुका है इस कारण से लोगों को भविष्य के बारे में सोचने की कोई भी आवश्यकता नहीं लग रही, यह विश्वास की कुछ भी कार्य करने के लिए पैसा ही काफी है जातिगत एवं धार्मिक विद्वेष भी बढ़ रहा है इन कारणों की वजह से लोगों ने समाज एवं राजनीति के बारे में विचार करना बंद कर दिया है उनको राजनीति एक आईपीएल मैच की तरह ही लगती है